उद्धव-गीता
श्रीमद भागवद के उन्तीसवें अध्याय उद्धव गीता से विख्यात है | भगवतम के इस भाग को उद्धव गीता के नाम से जाना जाता है। इंद्र और भगवानगण श्री कृष्ण के पास जाते हैं और उनसे वैकुंठ लौटने का अनुरोध करते हैं, उनका स्वर्गीय निवास है। भगवान कृष्ण ने उन्हें आश्वासन दिया कि वह बहुत जल्द दुनिया छोड़कर स्वर्ग लौट जाएंगे । अपने करीबी शिष्य की यह बात सुनकर, उद्धव कृष्ण को अपने साथ ले जाने के लिए कहते हैं।Click here to download Pdf : Uddhav Gita Free Download
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भगवान कृष्ण फिर उद्धव को प्रवचन देते हैं। संक्षेप में यह भगवद गीता जैसा ही है। लेकिन एक युद्ध क्षेत्र की स्थापना के बजाय, जहां कृष्ण अर्जुन से अपने दुश्मनों को अपने कर्तव्य के हिस्से के रूप में मारने का आग्रह करते हैं, यहां एक ही दार्शनिक सिद्धांतों को अधिक सौहार्दपूर्ण वातावरण में समझाया गया है।
उद्धव बचपन से ही सारथी के रूप में श्रीकृष्ण की सेवा में रहे, किन्तु उन्होंने श्री कृष्ण से कभी न तो कोई इच्छा जताई और न ही कोई वरदान माँगा।
जब कृष्ण अपने अवतार काल को पूर्ण कर गौ लोक जाने को तत्पर हुए, तब उन्होंने उद्धव को अपने पास बुलाया और कहा- "प्रिय उद्धव मेरे इस 'अवतार काल' में अनेक लोगों ने महजसे वरदान प्राप्त किये ,पैर तुमने कभी कुछ नही मागाँ अब कुछ मांगो , मैं तुम्हें देना चाहता हूँ ।
तुम्हारा भला करके, मुझे भी संतुष्टि होगी ।
उद्धव ने इसके बाद भी स्वय के लिए कुछ नही माँगा।वे तो केवल उन शंकाओ का समाधान चाहते थे जो उनके मन में कृष्ण की शिक्षाओ, और उनके कृतित्व को, देखकर उठ रही थी ।
उन्होंने भगवान श्री कृष्ण से पूछा-
"भगवन महाभारत के घटनाक्रम में अनेक बातें मैं नही समझ पाया!
आपके 'उपदेश' अलग रहे, जबकि व्यक्तिगत जीवन कुछ अलग दीखता रहा | क्या आप मुझे इसका कारण समझाकर मेरी ज्ञान पिपासा को शांत करेंगे?"
श्री कृष्ण बोले-
आज जो कुछ तुम जानना चाहते हो और उसका मैं जो तम्हें उत्तर दूंगा , वह "उद्धव-गीता" के रूप में जानी जाएगी।इसी कारण मैंने तुम्हे यह अवसर दिया है।तुम बेझिझक पूछो।“उद्धव मनैं कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र में अर्जुन से जो कुछ कहा, वह "भगवद्गीता" थी।
उद्धव ने पुछना शुरू किया -
"हे कृष्ण, सबसे पहले मुझे यह बताइये की सच्चा मित्र कौन होता है?"
कृष्ण ने कहा- "सच्चा मित्र वह है जो जरूरत पड़ने पर मित्र की बिना कुछ मांगे , मदद करे।"
उद्धव-
"कृष्ण, आप पांडवों के आत्मीय प्रिय मित्र थे।आजाद बांधव के रूप में उन्होंने सदा आप पर पूरा भरोसा किया।कृष्ण, आप महान ज्ञानी हैं। आप भुत ,वर्तमान व भविष्य के ज्ञाता हैं।
किन्तु आपने सच्चे मित्र की जो परिभाषा दी है, तो आपको नही लगता कि आपने उस परिभाषा के अनुसार कार्य नही किया?
आपने धर्मराज युधिष्ठिर को द्यूत (जुआ) खेलने से रोका क्यों नही?
चलो ठीक है कि आपने उन्हें नही रोका, लेकिन आपने भाग्य को भी धर्मराज के पक्ष में भी नही मोड़ा!
आप चाहते तो युधिष्ठिर को जीता सकते थे!
आप कम से कम उन्हें धन, राज्य और यहाँ तक की खदु को हारने के बाद तो रोक सकते थे!
उसके बाद जब उन्होंने अपने भाईयों को दांव पर लगाना शुरू कि या, तब तो आप सभाकक्ष में पहुँच सकते थे! आपने वह भी नही किया ?
उसके बाद जब दुर्योधन ने पाींडवों को सदैव अच्छी किस्मत वाला बताते हुए द्रौपदी को दांव पर लगाने को प्रेरित किया और जीतने पर हारा हुआ सब कुछ वापस कर देने का लालच दिया, कम से कम तब तो आप हस्तक्षेप कर ही सकते थे! अपनी दिव्या शक्ति के द्वारा आप पासे धर्मराज के अनकुूल कर सकते थे!
इसके स्थान पर आपने तब हस्तक्षेप किया, जब द्रौपदी लगभग अपना शील खो रही थी, तब आपने उसे वस्त्र देकर द्रौपदी के शील को बचाने का दावा किया!
लेकिन आप यह यह दावा भी कैसे कर सकते हैं?
उसे एक आदमी घसीटकर सभा में लाता है, और इतने सारे लोगों के सामने निर्वस्त्र करने के लिए छोड़ देता है!
एक महिला का शील क्या बचा? आपने क्या बचाया?
अगर आपने संकट के समय में अपनों की मदद नही की तो आपको आपाद-बांधव कै से कहा जा सकता है?
बताईए, आपने संकट के समय में मदद नही की ,तो क्या या फायदा?
क्या यही धर्म है?"
इन प्रश्नो को पछूते-पूछते उद्धव का गला रुंध गया और उनकी आँखों से आाँसू बहने लगे।
ये अकेले उद्धव के प्रशन नही हैं। महाभारत पढ़ते समय हर एक के मनोमस्तिष्क में ये सवाल उठते हैं!
उद्धव ने हम लोगों की ओर से ही श्रीकृष्ण से उक्त प्रश्न किये;
भगवान श्रीकृष्ण मस्कुराते हुए बोले-
"प्रिय उद्धव, यह सृष्टि का नियम है की विवेकवान ही जीतता है।
उस समय दुर्योधन के पास विवेक था, धर्मराज के पास नही।
यही कारण रहा कि धर्मराज पराजित हुए हुए।"
उद्धव को हैरान परेशान देखकर कृष्ण आगे बोले- "दुर्योधन के पास जुआ खेलने के लिए पैसा और धन तो बहुत था, लेकिन उसे पासों का खेल खेलना नही आता था, इसलिए उसने अपने मामा शकुनि का द्युत क्रीड़ा के लिए उपयोग किया। यही विवेक है।
धर्मराज भी इसी प्रकार सोच सकते थे और अपने चचेरे भाई से पेशकश कर सकते थे कि उनकी तरफ से मैं खेलूंगा । जरा विचार करो कि अगर शकुनी और मैं खेलते तो कौन जीतता?
पासे के अंक उसके अनुसार आते या मेरे अनुसार?
चलो इस बात को जाने दो। उन्होंने मुझे खेल में शामिल नही किया, इस बात के ललए उन्हें माफ़ किया जा सकता है। लेकिन
उन्होंने विवेक -शून्यता से एक और बड़ी गलती की!
और वह यह उन्होंने मुझसे प्रार्थना कि मैं तब तक सभा-कक्ष में न आऊ, जब तक कि मुझे बुलाया न जाए!
क्यों कि वे अपने दुर्भाग्य से खेल मुझसे छुपकर खेलना चाहते थे।
वे नही चाहते थे, मुझे मालूम पड़े कि वे जुआ खेल रहे हैं!
इस प्रकार उन्होंने मझु अपनी प्रार्थना से बााँध दिया! मुझे सभा-कक्ष में आने की अनुमति नही थी!
इसके बाद भी मैं कक्ष के बाहर इंतज़ार कर रहा था कि कब कोई मुझे बुलाता है! भीम, अर्जुन , नकुल और सहदेव सब मुझे भूल गए! बस अपने भाग्य और दुर्योधन को कोसते रहे!
अपने भाई के आदेश पर जब दुस्शाशन द्रौपदी को बाल पकड़कर घसीिता हुआ सभा-कक्ष में लाया, द्रौपदी अपनी सामर्थयण के अनुसार जूझती रही! तब भी उसने मुझे नही पकुारा!
उसकी बुद्धि तब जागतृ हुई, जब दुस्शाशन ने उसे निर्वस्त्र करना प्रारम्भ किया |
जब उसने स्वयं पर निर्भरता छोड़कर, हरी ,हरी अभयम कृष्णा, अभयम'
की गुहार लगाई, तब मुझे उसके शील की रक्षा का अवसर लमला।
जैसे ही मुझे पकुारा गया, मैं अविलम्ब पहुँच गया।
अब इस स्थिति में मेरी गलती बताओ?"
उद्धव बोले-
"कान्हा आपका स्पष्टीकरण प्रभावशाली अवश्य है ,किन्तु मुझे पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई !
क्या मैं एक और प्रश्न पूछ सकता हूँ ;?"
कृष्ण की अनुमति से उद्धव ने पूछा-
"इसका अर्थ यह हुआ कीआप तभी आओगे, जब आपको बुलाया जाएगा? क्या संकट से घिरे अपने भक्त की मदद करने आप स्वतः नही आओगे?"
कृष्ण मुस्कराये और बोले
"उद्धव इस श्रिष्टि में हरेक का जीवन उसके स्वयं के कर्मफल के आधार पर संचालित होता है।
न तो मैं इसे चलाता हूाँ, और न ही इसमें कोई हस्तक्षेप करता हूाँ।
मैं केवल एक 'साक्षी' हूँ।
मैं सदैव तुम्हारे नजदीक रहकर जो हो रहा है उसे देखता हूाँ। यही ईश्वर का धमण है।"
"वाह-वाह, बहुत अच्छा श्री कृष्ण!
तो इसका अर्थ यह हुआ की आप हमारे नजदीक खड़े रहकर हमारे सभी दुष्कर्मो का निरिक्षण करते रहेंगे?
हम पाप पर पाप करते रहेंगे, और आप हमें साक्षी बनकर देखते रहेंगे?
आप क्या चाहते हैं कि हम भूल करते रहें? पाप की गठरी बााँधते रहें और उसका फल भुगतते रहें?"
उलाहना देते हुए उद्धव ने पछूा !
तब कृष्ण बोले-
"उद्धव, तुम शब्दों के गहरे अर्थ को समझो।
जब तुम समझकर अनुभव कर लोगे कि मैं तुम्हारे नजदीक साक्षी के रूप में हर पल हूँ , तो क्या तुम कुछ भी गलत या बुरा कर सकोगे?
तुम निश्चित रूप से कुछ भी बुरा नही कर सकोगे।
जब तुम यह भूल जाते हो और यह समझने लगते हो कि मुझसे छुपकर कुछ भी कर सकते हो, तब ही तुम मुसीबत में फंसते हो!
धर्मराज का अज्ञान यह था कि उसने माना कि वह मेरी जानकारी के बिना जुआ खेल सकता है!
अगर उसने यह समझ लिया होता कि मैं प्रत्येक के साथ हर समय साक्षी रूप में उपस्थित हूँ तो क्याखेल का रूप कुछ और नही होता?"
भक्ति से अभिभूत उद्धव मंत्र मुग्ध हो गये और बोले-
प्रभु कितना गहरा दर्शन है। कितना महान सत्य। प्रार्थना ' और 'पूजा-पाठ' से, ईश्वर को अपनी मदद के लिए बुलाना तो महज हमारी
'पर-भावना' है। मग़र जैसे ही हम यह प्रयास करना शुरू करते है 'ईश्वर' के मर्जी के बिना पत्ता भी नही हिलता !
तब हमें साक्षी के रूप में उनकी उपस्थिति महसूस होने लगती है।गड़बड़ तब होती है, जब हम इसे भूलकर दुनियादारी में डूब जाते हैं।संपूर्ण श्रीमद भागवद् गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इसी जीवन-दर्शन का ज्ञान दिया है।
सारथी का अर्थ है - मार्गदर्शक।
अर्जुन के लिए सारथि बने श्रीकृष्ण वस्ततु: उसके मार्गदर्शक थे।
वह स्वयं की सामर्थ से यद्ध नही कर पा रहा था, लेकिन जसै ही अर्जुन को परम साक्षी के रूप में भगवान कृष्ण का एहसास वह ईश्वर की चेतना में विलय हो गया!
यह अनुभुति थी, शुद्ध, प्रवित्र , प्रेममय, आनंदित सुप्रीम चेतना की!
उद्धव बचपन से ही सारथी के रूप में श्रीकृष्ण की सेवा में रहे, किन्तु उन्होंने श्री कृष्ण से कभी न तो कोई इच्छा जताई और न ही कोई वरदान माँगा।
जब कृष्ण अपने अवतार काल को पूर्ण कर गौ लोक जाने को तत्पर हुए, तब उन्होंने उद्धव को अपने पास बुलाया और कहा- "प्रिय उद्धव मेरे इस 'अवतार काल' में अनेक लोगों ने महजसे वरदान प्राप्त किये ,पैर तुमने कभी कुछ नही मागाँ अब कुछ मांगो , मैं तुम्हें देना चाहता हूँ ।
तुम्हारा भला करके, मुझे भी संतुष्टि होगी ।
उद्धव ने इसके बाद भी स्वय के लिए कुछ नही माँगा।वे तो केवल उन शंकाओ का समाधान चाहते थे जो उनके मन में कृष्ण की शिक्षाओ, और उनके कृतित्व को, देखकर उठ रही थी ।
उन्होंने भगवान श्री कृष्ण से पूछा-
"भगवन महाभारत के घटनाक्रम में अनेक बातें मैं नही समझ पाया!
आपके 'उपदेश' अलग रहे, जबकि व्यक्तिगत जीवन कुछ अलग दीखता रहा | क्या आप मुझे इसका कारण समझाकर मेरी ज्ञान पिपासा को शांत करेंगे?"
श्री कृष्ण बोले-
आज जो कुछ तुम जानना चाहते हो और उसका मैं जो तम्हें उत्तर दूंगा , वह "उद्धव-गीता" के रूप में जानी जाएगी।इसी कारण मैंने तुम्हे यह अवसर दिया है।तुम बेझिझक पूछो।“उद्धव मनैं कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र में अर्जुन से जो कुछ कहा, वह "भगवद्गीता" थी।
उद्धव ने पुछना शुरू किया -
"हे कृष्ण, सबसे पहले मुझे यह बताइये की सच्चा मित्र कौन होता है?"
कृष्ण ने कहा- "सच्चा मित्र वह है जो जरूरत पड़ने पर मित्र की बिना कुछ मांगे , मदद करे।"
उद्धव-
"कृष्ण, आप पांडवों के आत्मीय प्रिय मित्र थे।आजाद बांधव के रूप में उन्होंने सदा आप पर पूरा भरोसा किया।कृष्ण, आप महान ज्ञानी हैं। आप भुत ,वर्तमान व भविष्य के ज्ञाता हैं।
किन्तु आपने सच्चे मित्र की जो परिभाषा दी है, तो आपको नही लगता कि आपने उस परिभाषा के अनुसार कार्य नही किया?
आपने धर्मराज युधिष्ठिर को द्यूत (जुआ) खेलने से रोका क्यों नही?
चलो ठीक है कि आपने उन्हें नही रोका, लेकिन आपने भाग्य को भी धर्मराज के पक्ष में भी नही मोड़ा!
आप चाहते तो युधिष्ठिर को जीता सकते थे!
आप कम से कम उन्हें धन, राज्य और यहाँ तक की खदु को हारने के बाद तो रोक सकते थे!
उसके बाद जब उन्होंने अपने भाईयों को दांव पर लगाना शुरू कि या, तब तो आप सभाकक्ष में पहुँच सकते थे! आपने वह भी नही किया ?
उसके बाद जब दुर्योधन ने पाींडवों को सदैव अच्छी किस्मत वाला बताते हुए द्रौपदी को दांव पर लगाने को प्रेरित किया और जीतने पर हारा हुआ सब कुछ वापस कर देने का लालच दिया, कम से कम तब तो आप हस्तक्षेप कर ही सकते थे! अपनी दिव्या शक्ति के द्वारा आप पासे धर्मराज के अनकुूल कर सकते थे!
इसके स्थान पर आपने तब हस्तक्षेप किया, जब द्रौपदी लगभग अपना शील खो रही थी, तब आपने उसे वस्त्र देकर द्रौपदी के शील को बचाने का दावा किया!
लेकिन आप यह यह दावा भी कैसे कर सकते हैं?
उसे एक आदमी घसीटकर सभा में लाता है, और इतने सारे लोगों के सामने निर्वस्त्र करने के लिए छोड़ देता है!
एक महिला का शील क्या बचा? आपने क्या बचाया?
अगर आपने संकट के समय में अपनों की मदद नही की तो आपको आपाद-बांधव कै से कहा जा सकता है?
बताईए, आपने संकट के समय में मदद नही की ,तो क्या या फायदा?
क्या यही धर्म है?"
इन प्रश्नो को पछूते-पूछते उद्धव का गला रुंध गया और उनकी आँखों से आाँसू बहने लगे।
ये अकेले उद्धव के प्रशन नही हैं। महाभारत पढ़ते समय हर एक के मनोमस्तिष्क में ये सवाल उठते हैं!
उद्धव ने हम लोगों की ओर से ही श्रीकृष्ण से उक्त प्रश्न किये;
भगवान श्रीकृष्ण मस्कुराते हुए बोले-
"प्रिय उद्धव, यह सृष्टि का नियम है की विवेकवान ही जीतता है।
उस समय दुर्योधन के पास विवेक था, धर्मराज के पास नही।
यही कारण रहा कि धर्मराज पराजित हुए हुए।"
उद्धव को हैरान परेशान देखकर कृष्ण आगे बोले- "दुर्योधन के पास जुआ खेलने के लिए पैसा और धन तो बहुत था, लेकिन उसे पासों का खेल खेलना नही आता था, इसलिए उसने अपने मामा शकुनि का द्युत क्रीड़ा के लिए उपयोग किया। यही विवेक है।
धर्मराज भी इसी प्रकार सोच सकते थे और अपने चचेरे भाई से पेशकश कर सकते थे कि उनकी तरफ से मैं खेलूंगा । जरा विचार करो कि अगर शकुनी और मैं खेलते तो कौन जीतता?
पासे के अंक उसके अनुसार आते या मेरे अनुसार?
चलो इस बात को जाने दो। उन्होंने मुझे खेल में शामिल नही किया, इस बात के ललए उन्हें माफ़ किया जा सकता है। लेकिन
उन्होंने विवेक -शून्यता से एक और बड़ी गलती की!
और वह यह उन्होंने मुझसे प्रार्थना कि मैं तब तक सभा-कक्ष में न आऊ, जब तक कि मुझे बुलाया न जाए!
क्यों कि वे अपने दुर्भाग्य से खेल मुझसे छुपकर खेलना चाहते थे।
वे नही चाहते थे, मुझे मालूम पड़े कि वे जुआ खेल रहे हैं!
इस प्रकार उन्होंने मझु अपनी प्रार्थना से बााँध दिया! मुझे सभा-कक्ष में आने की अनुमति नही थी!
इसके बाद भी मैं कक्ष के बाहर इंतज़ार कर रहा था कि कब कोई मुझे बुलाता है! भीम, अर्जुन , नकुल और सहदेव सब मुझे भूल गए! बस अपने भाग्य और दुर्योधन को कोसते रहे!
अपने भाई के आदेश पर जब दुस्शाशन द्रौपदी को बाल पकड़कर घसीिता हुआ सभा-कक्ष में लाया, द्रौपदी अपनी सामर्थयण के अनुसार जूझती रही! तब भी उसने मुझे नही पकुारा!
उसकी बुद्धि तब जागतृ हुई, जब दुस्शाशन ने उसे निर्वस्त्र करना प्रारम्भ किया |
जब उसने स्वयं पर निर्भरता छोड़कर, हरी ,हरी अभयम कृष्णा, अभयम'
की गुहार लगाई, तब मुझे उसके शील की रक्षा का अवसर लमला।
जैसे ही मुझे पकुारा गया, मैं अविलम्ब पहुँच गया।
अब इस स्थिति में मेरी गलती बताओ?"
उद्धव बोले-
"कान्हा आपका स्पष्टीकरण प्रभावशाली अवश्य है ,किन्तु मुझे पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई !
क्या मैं एक और प्रश्न पूछ सकता हूँ ;?"
कृष्ण की अनुमति से उद्धव ने पूछा-
"इसका अर्थ यह हुआ कीआप तभी आओगे, जब आपको बुलाया जाएगा? क्या संकट से घिरे अपने भक्त की मदद करने आप स्वतः नही आओगे?"
कृष्ण मुस्कराये और बोले
"उद्धव इस श्रिष्टि में हरेक का जीवन उसके स्वयं के कर्मफल के आधार पर संचालित होता है।
न तो मैं इसे चलाता हूाँ, और न ही इसमें कोई हस्तक्षेप करता हूाँ।
मैं केवल एक 'साक्षी' हूँ।
मैं सदैव तुम्हारे नजदीक रहकर जो हो रहा है उसे देखता हूाँ। यही ईश्वर का धमण है।"
"वाह-वाह, बहुत अच्छा श्री कृष्ण!
तो इसका अर्थ यह हुआ की आप हमारे नजदीक खड़े रहकर हमारे सभी दुष्कर्मो का निरिक्षण करते रहेंगे?
हम पाप पर पाप करते रहेंगे, और आप हमें साक्षी बनकर देखते रहेंगे?
आप क्या चाहते हैं कि हम भूल करते रहें? पाप की गठरी बााँधते रहें और उसका फल भुगतते रहें?"
उलाहना देते हुए उद्धव ने पछूा !
तब कृष्ण बोले-
"उद्धव, तुम शब्दों के गहरे अर्थ को समझो।
जब तुम समझकर अनुभव कर लोगे कि मैं तुम्हारे नजदीक साक्षी के रूप में हर पल हूँ , तो क्या तुम कुछ भी गलत या बुरा कर सकोगे?
तुम निश्चित रूप से कुछ भी बुरा नही कर सकोगे।
जब तुम यह भूल जाते हो और यह समझने लगते हो कि मुझसे छुपकर कुछ भी कर सकते हो, तब ही तुम मुसीबत में फंसते हो!
धर्मराज का अज्ञान यह था कि उसने माना कि वह मेरी जानकारी के बिना जुआ खेल सकता है!
अगर उसने यह समझ लिया होता कि मैं प्रत्येक के साथ हर समय साक्षी रूप में उपस्थित हूँ तो क्याखेल का रूप कुछ और नही होता?"
भक्ति से अभिभूत उद्धव मंत्र मुग्ध हो गये और बोले-
प्रभु कितना गहरा दर्शन है। कितना महान सत्य। प्रार्थना ' और 'पूजा-पाठ' से, ईश्वर को अपनी मदद के लिए बुलाना तो महज हमारी
'पर-भावना' है। मग़र जैसे ही हम यह प्रयास करना शुरू करते है 'ईश्वर' के मर्जी के बिना पत्ता भी नही हिलता !
तब हमें साक्षी के रूप में उनकी उपस्थिति महसूस होने लगती है।गड़बड़ तब होती है, जब हम इसे भूलकर दुनियादारी में डूब जाते हैं।संपूर्ण श्रीमद भागवद् गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इसी जीवन-दर्शन का ज्ञान दिया है।
सारथी का अर्थ है - मार्गदर्शक।
अर्जुन के लिए सारथि बने श्रीकृष्ण वस्ततु: उसके मार्गदर्शक थे।
वह स्वयं की सामर्थ से यद्ध नही कर पा रहा था, लेकिन जसै ही अर्जुन को परम साक्षी के रूप में भगवान कृष्ण का एहसास वह ईश्वर की चेतना में विलय हो गया!
यह अनुभुति थी, शुद्ध, प्रवित्र , प्रेममय, आनंदित सुप्रीम चेतना की!
तत-त्वम-असि !
अर्थात वह तुम ही हो।
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Source of the Text: Gita Society
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1 Comments
उद्धव गीता नाम से परिचित थी पर उसे पढ़ने का अवसर प्राप्त नही हुआ था।यहां अत्यंत सरल भाषा मे उसका अर्थ पढकर बहुत अच्छा लगा। हमलोग अनजाने मे ही अपने धरोहर से इतने दूर हो चुके है कि अपने ही देश मे विदेशियो की तरह हो चुके।इसे इतनी सहजता से उपलब्ध कराने के लिए हृदय से आभार।
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