भीष्म पितामह को कर्ण कि सच्चाई के बारे में कैसे पता चला ?

भीष्म पितामह को कर्ण कि सच्चाई के बारे में कैसे पता चला ?

पितामह और कर्ण संवाद 

पितामह ने कर्ण कि शौर्य कि तारीफ की। 

महाभारत में कर्ण का रहस्य केवल माता कुन्ती, श्री कृष्ण, वेद व्यास और गंगापुत्र भीष्म को ज्ञात था।

इसका वर्णन भीष्म पर्व में दिया गया है। 

कुन्ती तो स्वयं कर्ण की माता थी, वेद व्यास और श्री कृष्ण अन्तर्यामी थे, इसलिए इन्हें यह रहस्य मालूम था।

महाभारत भीष्म पर्व मेंं भीष्मवध पर्व के अंतर्गत 122वें अध्याय मेंं 'संजय द्वारा भीष्म और कर्ण के बीच हुए रहस्यमय संवाद' का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है। 

संजय कहते हैं - महाराज! शांतनु नंदन, भीष्म के चुप हो जाने पर, सब राजा वहाँ से उठकर अपने-अपने विश्राम स्थान को चले गये। भीष्म पितामह के  रथ से गिरने कि घटना सुनकर, राधा-नंदन कर्ण के मन में कुछ भय समा गया। वह उतावला होकर उनके पास आया। उस समय उसने देखा, महात्मा भीष्म शरशय्या पर सो रहे हैं, ठीक उसी तरह जैसे वीरवर भगवान् कार्तिकेय जन्म-काल में शरशय्या (सरकण्डों के बिछावन) पर सोये थे। पितामह भीष्म के नेत्र बंद थे।

उन्हें देखकर महा तेजस्वी कर्ण की आखों में आंसू छलक आये और अश्रु पूर्ण भरे आँखों होकर उसने कहा-‘भीष्म! हे  महाबाहो! कुरुश्रेष्ठ! मैं वही राधा पुत्र कर्ण हूं, जो सदा आपकी आंखों में गड़ा रहता था और जिसे आप सर्वत्र द्वेष दृष्टि से देखते थे।’ कर्ण ने यह बात उनसे कही। उसकी बात सुनकर बंद नेत्रों वाले बलवान् कुरुवृद्ध भीष्म ने ,धीरे से आंखें खोलकर देखा, और उस स्थान को एकांत देख पहरेदारों को दूर हैट जाने को कहा  ,और एक हाथ से कर्ण  से स्नेह  आलिङ्गन किया, जैसे पिता अपने पुत्र को गले से लगाता है। तत्पश्चात उन्होंने इस प्रकार कहा- ‘आओ, आओ, कर्ण! तुम सदा मुझसे बहस और वाद विवाद  करते रहे। सदा मेरे साथ स्पर्धा करते रहे। आज यदि तुम मेरे पास नहीं आते तो निश्चय ही तुम्हारा कल्याण नहीं होता। ‘वत्स! तुम राधा के नहीं, कुंती के पुत्र हो। तुम्हारे पिता अधिरथ नहीं हैं। महाबाहो! तुम सूर्य के पुत्र हो। मैंने नारदजी से तुम्हारा परिचय प्राप्त किया था। श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास से ,भी तुम्हारे जन्म का वृत्तांत ज्ञात हुआ था और जो कुछ ज्ञात हुआ, वह सत्य है। इसमें संदेह नहीं हैं। तुम्हारे प्रति मेरे मन में द्वेष नहीं है ,यह मैं तुमसे सत्य कहता हूँ।

भीष्म पर्व में पितामह इस श्लोक के माध्यम से यह सच्चाई बताते है। 

कृष्णद्वैपायनाच्चैव तच्च सत्यं न संशयः ⁠।

न च द्वेषोअस्ति  ,मे तात त्वयि सत्यं ब्रवीमि ते ⁠।⁠।⁠ 

इस श्लोक का अर्थ इस प्रकार है। 

‘तात! श्रीकृष्णद्वैपायन व्याससे भी तुम्हारे जन्मका वृत्तान्त ज्ञात हुआ था और जो कुछ ज्ञात हुआ, वह सत्य है। इसमें संदेह नहीं है। तुम्हारे प्रति मेरे मनमें द्वेष नहीं है; यह मैं तुमसे सत्य कहता हूँ ⁠।⁠।⁠ १० ⁠।⁠।

इसके बाद भीष्म ने कर्ण के शौर्य का वर्णन किया।  

‘उत्तम व्रत का पालन करने वाले वीर! मैं कभी-कभी तुमसे जो कठोर वचन बोल दिया करता था, उसका उद्देश्य था, तुम्हारे उत्साह और तेज को नष्ट करना; क्योंकि सूतनंदन! तुम राजा दुर्योधन के उकसाने से अकारण ही समस्त पाण्डवों पर बहुत बार आक्षेप किया करते थे। ‘तुम्हारा जन्म ,कन्यावस्था में ही कुंती के गर्भ से उत्पन्न होने के कारण,धर्मलोप से हुआ है; इसीलिये नीच पुरुषों के आश्रय से तुम्हारी बुद्धि इस प्रकार ईर्ष्यावश, गुणवान पाण्डवों से भी द्वेष रखने वाली हो गयी है और इसी के कारण कौरव-सभा में मैंने तुम्हें अनेक बार कटुवचन सुनाये हैं। ‘मैं जानता हूं, तुम्हारा पराक्रम समरभूमि में शत्रुओं के लिये दुखद है। 

तुम ब्राह्मण-भक्त‍, शूरवीर तथा दान में उत्तम निष्ठा रखनेवाले हो। पितामह बोलते है ,हे देव तुल्य वीर! मनुष्यों में तुम्हारे समान कोई नहीं है। मैं सदा अपने कुल में फूट पड़ने के डर से ,तुम्हें कटु वचन सुनाता रहा। ‘बाण चलाने,दिव्याअस्त्रों का संधान करने, फुर्ती दिखाने तथा अस्त्र -बल में तुम अर्जुन तथा महात्मा श्री कृष्ण समान हो। ‘कर्ण! तुमने कुरु राज दुर्योधन के लिये कन्या‍ लाने के लिए  , अकेले काशीपुर में जाकर केवल धनुष की सहायता से, वहाँ आये हुए समस्त राजाओं को युद्ध में परास्तय कर दिया था। ‘युद्ध में निपूर्ण वीर! यद्यपि राजा जरासंघ दुर्जय एवं बलवान् था, तथापि वह रणभूमि में तुम्हारा मुकाबला न कर सका। ‘तुम  धैर्य पूर्वक युद्ध करने वाले तथा तेज और बल से सम्पन्न हो। संग्राम-भूमि में देव कुमारों के समान जान पड़ते हो और प्रत्येक युद्ध में मनुष्यों से अधिक पराक्रमी हो। ‘मैंने पहले जो तुम्हारे प्रति क्रोध किया था, वह अब दूर हो गया है। 

शुत्रु सूदन! मेरी मृत्यु के द्वारा ही यह वैर की आग बुझ जाय और भूमण्डल के समस्तं नरेश अब दु:ख शोक से रहित एवं निर्भय हो जाय।


कर्ण ने कहा-महाबाहो! भीष्म! आप जो कुछ कह रहे हैं, उसे मैं भी जानता हूँ। यह सब ठीक है, इसमें संशय नहीं है। वास्तव में मैं कुंती का ही पुत्र हूं, सूतपुत्र नहीं हूँ। परंतु माता कुंती ने तो मुझे पानी में बहा दिया और सूत परिवार  ने मुझे पाल-पोषकर बड़ा किया। पूर्व काल से ही मैं दुर्योधन के साथ स्नेह करता आया हूँ और प्रसन्नता पूर्वक रहा हूँ। दुर्योधन से मैंने यह प्रतिज्ञा कर ली है कि तुम्हारा जो-जो दुष्कर कार्य होगा, वह सब मैं पूरा करूंगा। दुर्योधन का ऐश्वर्य भोगकर मैं उसे निष्फल नहीं कर सकता। जैसे वसुदेव नंदन श्रीकृष्ण ,पाण्डुपुत्र अर्जुन की सहायता के लिये दृ‍ढ़ प्रतिज्ञ हैं, उसी प्रकार मेरे धन, शरीर, स्त्री, पुत्र तथा यश सब कुछ दुर्योधन के लिये निछावर हैं। यज्ञों में प्रचुर दक्षिणा देनेवाले कुरुनंदन भीष्म! मैंने दुर्योधन का आश्रय लेकर पाण्डवों का क्रोध सदा इसलिये बढ़ाया है कि यह क्षत्रिय-जाति रोगों का शिकार होकर न मरे  यह क्रोध युद्ध में वीर गति प्राप्त करे । यह युद्ध टालना अशंभव है । इसे कोई टाल नहीं सकता। भला, दैव की पुरुषार्थ के द्वारा कौन मिटा सकता है। पितामह! आपने भी तो ऐसे निमित्त (लक्षण) देखे थे, जो भूमण्डल के विनाश की सूचना देने वाले थे। आपने कौरव-सभा में उनका वर्णन भी किया था।

पाण्डवों तथा भगवान् वासुदेव को मैं सब प्रकार से जानता हूं, वे दूसरे पुरुषों के लिये सर्वथा अजेय हैं, तथापि मैं उनसे युद्ध करने का उत्साह रखता हूँ और मेरे मन का यह निश्चित विश्वास है कि मैं युद्ध में पाण्डवों को जीत लूंगा। पाण्डवों के साथ हम लोगों का यह वैर अत्यंत भयंकर हो गया है। अब इसे दूर नहीं किया जा सकता। मैं अपने धर्म के अनुसार प्रसन्नचित्त होकर अर्जुन के साथ युद्ध करूंगा। तात! मैं युद्ध के लिये निश्चय कर चुका हूँ। वीर! मेरा विचार है कि आपकी आज्ञा लेकर युद्ध करूँ  अत: आप मुझे इसके लिये आज्ञा देने की कृपा करें। मैंने क्रोध के आवेग से अथवा चपलता के कारण यहाँ जो कुछ आपके प्रति कटुवचन कहा हो या आपके प्रतिकूल आचरण किया हो, वह सब आप कृपा पूर्वक क्षमा कर दें।

भीष्म ने कहा-कर्ण! यदि यह भयंकर वैर अब नहीं छोड़ा जा सकता तो मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं, तुम स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा से युद्ध करो। दीनता और क्रोध छोड़कर अपनी शक्ति और उत्साह के अनुसार सत्पुवरूषों के आचार में स्थिर रहकर युद्ध करो। तुम रणक्षेत्र में पराक्रम कर चुके हो और आचारवान तो हो ही। कर्ण! मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ। तुम जो चाहते हो, वह प्राप्त करो। धनंजय के हाथ से मारे जाने पर तुम्हें क्षत्रिय धर्म के पालन से प्राप्त होने वाले लोकों की उपलब्धि होगी। तुम अभिमान शून्य होकर बल और पराक्रम का सहारा ले युद्ध करो, क्षत्रिय के लिये धर्मानुकूल युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्या‍णकारी साधन नहीं है। कर्ण! मैं तुमसे सत्य कहता हूँ। मैंने कौरवों और पाण्डवों में शांति स्थापित करने के लिये दीर्घ काल तक महान प्रयत्न किया था; किंतु मैं उसमें कृत कार्य न हो सका। संजय कहते हैं-राजन्! गंगा नंदन भीष्म के एसा कहने पर राधानंदन कर्ण उन्हें प्रणाम करके ,उनकी आज्ञा लेकर  रथ पर आपके पुत्र दुर्योधन के पास चला गया।


Read Articles Related to भीष्म पितामह को कर्ण कि सच्चाई के बारे में कैसे पता चला ?

Benefits of Hanuman Chalisa

Sankat Mochan Hanuman Ashtak Lyrics in Hindi

हनुमान वडवानल स्तोत्र

Hanuman Chalisa in English

Bajrang Baan Importance

Post a Comment

0 Comments